Friday 28 June 2019


                  बदली

मैं हूँ एक बदली, कुछ बदली-बदली |
धुन है सवार कुछ करने की,
आगे बढ़, न पीछे मुड़ने की,
न अलसाई , न मुरझाई,
हूँ शरद धूप सी खिली-खिली |
मैं एक बदरी, कुछ बदली-बदली |

नाम पुराना ,रूप नया है,
आशा-विश्वास से सिंचित हूँ,
नहीं लाचार तनिक भी |
मैं एक बदली, कुछ बदली-बदली |

दृढ़ता से डटती हूँ, नहीं किसी से डरती,
बढ़ती संकल्पों की गठरी लेकर,
मन में उमंगे नित नई नई  |
मैं एक बदली, कुछ बदली-बदली |

करने हैं कितने काम बड़े!
युग परिवर्तन की चाह लिए,
चलती निरंतर बिन विश्राम लिए,
मैं एक बदली, कुछ बदली-बदली |

बरसाती हूँ मैं अपनापन ,
हर लेती मन का सूनापन.
हर पीड़ा को हरने की चाह लिए,
बन जाती हूँ अक्षय वट सी,
मैं एक बदली, कुछ बदली-बदली |

हर ऋतु ही तो मेरी है ,
जिसमें भी देखो छाया मेरी है,
कभी बरसती माँ की ममता बन,
कभी बनती बौछारें राखी के तारों की ,
मैं एक बदली, कुछ बदली-बदली |

कभी प्रेयसी बन जीवन को
करती झंकृत मधुर वीणा के तारों सी
कभी बेटी बन करती आँगन को
गुंजित ,कोयल की मीठी तानों सी
मैं एक बदली, कुछ बदली-बदली |

 नीरा भार्गव नीर


Saturday 17 March 2018

आ गौरैया 

आ गौरैया मेरे आँगन |
आँगन !!!!!!! कैसा आँगन ?
दसवीं मंजिल पर घर मेरा ,
बड़ी बालकनी में तू डाल ले डेरा ,
कुछ गमलों से रोशन मेरी बगिया
इनके ही पीछे तू बसा
ले अपनी दुनिया |
दाना-पानी मैं दे दूंगी ,
 बच्चे तेरे मैं पालूंगी ,
बस तू वापस आ जा .....मेरी सोन चिरैया |
बचपन की यादों में तू चहके ,
तेरे कलरव से मन महके ,
तू तो रची-बसी यादों में ,
तू बस अपनी झलक दिखा जा |
यूँ मत रूठे मेरी रानी ,
आ जा मेरी चुन-चुन चिड़िया
माना , अब आँगन हैं छूटे
न तस्वीरों के पीछे तेरा घर ,
फिर भी मन के कोने में
लगा है तेरा आना-जाना
तू चाहे तो लटके गमलों में ,
या फिर कृत्रिम घोंसले भीतर
सजा ले अपनी दुनिया सुंदर |
तू ही सबको खुशियाँ बाँटे,
आ गौरैया मेरे आँगन
फिर से भर दे जीवन में रंग |    

Friday 21 July 2017




 बरखा ! तुम हो रानी

बरखा ! तुम हो रानी
हाँ ! तुम सचमुच हो रानी |
आने से तुम्हारे ,हो जाती है                                            
प्रकृति हरी-भरी , मानो
 नहा-धोकर हों सब तैयार ,
करने को तुम्हारी अगवानी ,
बरखा ! तुम तो हो रानी |
तुम्हारे आने से ठीक पहले
नीले अम्बर पर,बादल काले
छा जाते हैं ,कड़के बिजली ऐसे
मानो तोपों की देती तुम्हें सलामी ,
बरखा ! तुम तो हो रानी |
तुम देती हो जीवन,नवांकुरों को
भरती हो प्राण,निष्प्राण पड़े 
बीजों में ,बनकर तरु वे 
फैलाते हैं धरा पर हरियाली
बरखा ! तुम तो हो रानी |
बादल देते हैं ताल , थिरकती हो
 बांधे मोती सी बूंदों के घुंघरू  
हो बैचेन मिलाती हो सुरताल
देख तुम्हें हर्षाए मन मयूर
नाचे मोर पंख फैला बिखेरे ,
इन्द्र्धनुषी छठा निराली,
बरखा ! तुम  तो हो रानी
तुम आती हो लाती हो
महकता सावन ,भरती हो उमंग
प्रफुल्लित हो गाती गीत नई नवेली
सतरंगी लहरिया पहने ,
झूलती झूला  ,करती तेरी
बूंदों संग अठखेली |
बरखा ! तुम  तो हो रानी
फ़ैल जाती चहुँ ओर घेवर की महक
पर, धधकती है ज्वाला ह्रदय में ,
जब तके पिया की राह अकेली ,
बाहर गर्जन हो मेघों का ,
भीतर तडपन मचे जोर की |
बरखा ! तुम  तो हो रानी
 बरखा ! अब सुन लो एक
विनती हमारी ,मत करना प्रलय ,
करना मत तांडव, हो न विध्वंस
न टूटे सीमाओं के बांध
न छूटे आँगन किसी का ,
न  हो कोई देहरी खाली |
आओ तो मन भर कर देना |
जाओ जब ,आने की आस बंधाना
जोहेंगे हम बाट तुम्हारी
बरखा ! तुम तो हो रानी


   






Friday 17 February 2017

      गौरया


प्रतिदिन तिनका लेकर आती
तस्वीरों के पीछे जाती
 बिना हाथ के छोटी चोंच से
जोड़-जोड़ कर नीड़ बनाती
कोमल ,मखमली और प्यारा
उसकी रचना अनुपम होती
फिर उस घर (घोंसला ) में बच्चे आते
चोंच में भरकर दाना लाती
बड़े प्यार से उन्हें खिलाती
जैसे ही वो उड़ना सीखे 
गौरया तो खुश हो जाती
हर्षित अहसास में 
वियोग की वेदना को 
कुछ इस प्रकार छुपाती   
कि,फिर अगले ही दिन से 
एक नए होंसले  के संग 
नई दुनिया बसाने को 
प्रतिदिन तिनका लेकर आती 
जोड़-जोड़ कर  नीड़ बनाती

  

Saturday 4 February 2017

वर्तमान समय में बढती जनसंख्या और घटते जंगलों के कारण वानरों के घर छिनते जा रहे हैं |यह बहुत दुःख की बात एवं गंभीर समस्या है| वानरों की यह खीज सोसाइटी में उनके आने से दिखाई देती है | जब वे अनजाने में पेट की क्षुधा की शांति हेतु नगरों में घुस आते हैं और भोजन के बजाय उन्हें खाने पड़ते हैं डंडे | कपि समाज के अंतर्मन की व्यथा को कविता के माध्यम से व्यक्त किया गया है |

कपि की व्यथा

मैंने तुम्हारा क्या था बिगाड़ा,
जो तुमने हमारा घर है उजाड़ा ,
न भूलो !
कभी हम ही थे तुम्हारे पूर्वज
आज भी पूजते हो तुम अंजनी नंदन |
भटकते हैं हम आज हो यूँ बेघर  
बनाया जहाँ तुमने अपना आशियाना
भूले-भटके जब आते थे दर तुम्हारे
मानते थे तुम कि घर आज
स्वयं मारुति नंदन पधारे
करते थे तुम भव्य स्वागत हमारा
खिलाते  थे केला ,चना औ सिंगीदाना
डरते थे हम भी दर पे आने से तुम्हारे
भय था हमें भी कि बाँध हमें
कोई मदारी न नचा ले ,
पर , अब तेरे इस शहर में
रहते  हैं अनगिनत  मदारी
हमें देखते ही उठाते हैं पत्थर
न करते तनिक भी वे चिंता हमारी
हम विचरते हैं भूखे
पर भूख न मिटी तुम्हारी
काट डाले सारे जंगल
बसा दी कंक्रीट की नगरी
हर वक्त कहते हो आतंक है हमारा
हमारा क्या दोष है, कभी तुमने विचारा
तेरी इस भूख ने ही हे! मानव
प्रकृति के संतुलन को  बिगाड़ा
तुमने हमारा घर क्यों उजाड़ा ?
 हे! मानव
तुमने हमारा घर क्यों उजाड़ा ?

Friday 15 July 2016

               आ गई अब वर्षा रानी 


    छम-छम बरसेगा अब पानी
     आ गई अब वर्षा रानी    

                   छाएगें अब  बादल काले,                                                              नाचेंगे मोर मतवाले,

    चमचम बिजली चमकेगी,
    छमछमछमछम बारिश होगी।


निर्मलता छाएगी चहुँ ओर
हरियाली होगी हर  ओर

                सूखी नदियों में आएगें प्राण,
                कोयल छेड़ेगी मधुर तान,

मोर , पपीहा करें पुकार,
देते हमको खुशी अपार।
                            
                                      छम-छम बरसेगा अब पानी
                                     करें वर्षा के स्वागत की तैयारी
  तैयारी न रहे अधूरी
  जुट जाएँ हम आज, अभी से
                                    नाले नाली साफ़ रखें
                                    यही प्रार्थना है, सभी से
   नाम न गंदगी का हो कहीं
   बारिश में साफ़ हों  सभी

                               न पॉलीथिन ,न हों  बोतलें

                              यही रुकावटें हैं बड़ी  ,
   पानी जब  निर्बाध बहेगा          
    बीमारी का नाम न होगा  
                बंद कुऍं -तालाब खुद्वाओ  
               उन तक वर्षा जल पहुँचाओ     
  
  वर्षा जल को करो  इकठ्ठा 
    होता है  यह बड़े  काम का
                             चाहे इससे बाग को सींचो
                             चाहे इससे प्यास बुझाओ

     अब केवल  हो एक ही नारा    
  वर्षा जल संरक्षण कर्त्तव्य हमारा

                              छम-छम छम-छम बरसा  पानी

               आ गई अब वर्षा रानी  

नीरा भार्गव 







                                 
                      बरखा आयी रे,

चम-चम-चम बिजुरिया चमके
घनन-घनन घन घुमड़ के बरसे,
छम-छम-छम पानी बरसे,
देखो बरखा आयी रे,      
सबके मन हरषायी रे।
                                    नदियाॅ नाले सभी भरे हैं,
                                    बाग-बगीचे हरे-भरे हैं,
                                   रंग-बिरंगे फूल खिले हैं,
                                    देख-देख जी हरषाए रे
                                     देखो बरखा आयी रे।
गोरी भींज रही बूॅदों में,
बाट जोहती खड़ी पिया की,
गुजरी बातें  यादकर,
कुछ शरमाई,कुछ सकुचाई ,
लज्जा से फिर लाल हुई री,
                                      मन में फिर उल्लास भरी सी,
                                     सतरंगी  चुनरी भींज रही है
                                     चूड़ी खन-खन बोले रे
                                     हाथों की मेहंदी महक रही है
                                      पैरों की  पायल  बोले रे
  छम-छम-छम पानी बरसे,
घुमड़-घुमड घन बरसे रे
देखो बरखा आयी रे,
सबके मन हरषायी रे।

नीरा भार्गव